बारिश में बेजुबान छोटी सी कहानी
बेजुबान की कहानी ------
बेजुबान की कथा
सुबह-सुबह हल्की-हल्की तो कभी तेज होती बूंदाबादी
बदल जाती जो रिमझिम में सुबह जब अपनी चाय
और बिस्कुट के साथ बैठा ले रहा था चुस्कियों का सुख निहारते पेड़ पौधों के
उन पर पड़ती बूंदों को बूंदों का पत्तों से टपक कर ओझल हो जाना अद्भुत था
ये सब प्रकृति का कारोबार कि एक मरियल सा श्वान डरा-डरा सा आ खड़ा हुआ
छोटे गेट के पास बहुत भूखा लगा सलाखों के पार बिस्कुट के दो
टुकड़े करके रख दिए पर वह एकदम भाग गया भय से बहुत सताया गया होगा
मुहल्ले के शैतान बच्चों से आते-जाते राहगीरों से भी बहुत भयग्रस्त
मैं भीतर चला आया देखा जालीदार दरवाजे की ओट वह लपक कर
आया मुंह में भरकर भगा थोड़ी देर में फिर आ कर ले गया
दूसरा टुकड़ा भी भीतर कटोरदान को टटोला एक रोटी पड़ी थी
बासी शायद उसी के लिए मैं भी खुश हुआ बहुत
टुकड़े टुकड़े कर फिर धर दिए वहीं वह फासले पर सहमा सा देख रहा था
टुकुर टुकुर जानता था मैं जब तक खड़ा रहूंगा न आएगा
खाने को रोटी भूख पर डर भारी था मैं चला आया भीतर
सोचता हुआ कि कुछ तो है आदमी में जिससे कोई डर भी सकता है
इस तरह मनुष्य होने पर लज्जित हुआ
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